sawmi vivekViveka ji ke best thought / thought of the day in hindi
सभी अवसरों पर बोलना उचित नहीं होता, और सब जगह मौन रहना भी उचित नहीं होता।
परिस्थिति के अनुसार कहीं बोलना आवश्यक होता है, और कहीं मौन रहना भी। जैसे उदाहरण के लिए – जब किसी व्यक्ति ने कोई गलती कर दी हो, और बड़ा अधिकारी उस व्यक्ति उससे पूछे, कि तुमने ऐसी गलती क्यों की? तो वहां गलती करने वाले को इतना तो स्वीकार करना चाहिए कि *मेरी लापरवाही, मूर्खता अथवा जल्दबाजी के कारण मुझसे यह गलती हो गई। मैं इसके लिए शर्मिंदा हूं। और आप मुझे जो दंड देना चाहें मैं उसे भोगने के लिए भी तैयार हूं।* परंतु ऐसी स्थिति में वह अपनी गलती को उचित ठहराने के लिए उल्टे-सीधे कारण बताए, तो यह अत्यंत ही अनुचित होगा। अर्थात एक गलती करने के बाद, उल्टे-सीधे कारण बता कर अब वह दूसरी गलती और कर रहा है। ऐसे अवसर पर कारण नहीं बताने चाहिएँ, बल्कि मौन रहना उचित है।
इसी प्रकार से अगर कोई नौकर अपने सेठ से कुछ धन अग्रिम राशि के रूप में मांगे, और सेठ उससे पहले भी उसे धन दे चुका हो। पहले लिया हुआ धन तो नौकर ने सेठ को चुकाया नहीं, फिर और मांगने आ गया हो, ऐसी स्थिति में यदि सेठ उस नौकर को और धन देना नहीं चाहता हो, तो वहां पर भी सेठ को मौन रहना चाहिए। तथा नौकर को भी समझ लेना चाहिए, कि सेठजी के मौन का अर्थ है, “और धन नहीं मिलेगा।” इसी प्रकार के अन्य अवसरों पर भी मौन रहना सभ्यता है।
परंतु सर्वत्र मौन रहना भी उचित नहीं है। जैसे *यदि कहीं कोई सभा चल रही है। आप भी वहां सभा में सदस्य के रूप में उपस्थित हैं। वहां समाज और देश के लिए कानून बनाए जा रहे हैं। जैसे लोकसभा विधानसभा आदि में बनाए जाते हैं। और यदि उस सभा में गलत कानून बनाए जा रहे हैं, तब वहां आप मौन बैठे रहें, तो यह सभ्यता नहीं है। वहां तो गलत कानून का विरोध करना ही सभ्यता है। वहां तो बोलना ही होगा। और उस गलत कानून का विरोध करना ही उचित है।*
इस प्रकार से बुद्धिमत्ता पूर्वक निर्णय करना चाहिए, कि “कहाँ पर मौन रहें, और कहां पर बोलें, कितना बोलें, कैसी भाषा बोलें, यही उचित है, यही सभ्यता है।” – *स्वामी विवेकानंद परिव्राजक*