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Panchayat Actor Bulloo Kumar Struggle Success Story | Bihar | पापा से झगड़कर थिएटर को चुना,नाम-शक्ल पर हंसे लोग: बच्चों की फीस तक देने के पैसे नहीं थे, फिर पंचायत के माधव बनकर छाए बुल्लू कुमार

Panchayat Actor Bulloo Kumar Struggle Success Story | Bihar | पापा से झगड़कर थिएटर को चुना,नाम-शक्ल पर हंसे लोग: बच्चों की फीस तक देने के पैसे नहीं थे, फिर पंचायत के माधव बनकर छाए बुल्लू कुमार


4 घंटे पहलेलेखक: आशीष तिवारी/भारती द्विवेदी

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महान नाटककार विलियम शेक्सपियर ने कहा था, ‘नाम में क्या रखा है। काम अच्छा होना चाहिए।’ इस लाइन को चरितार्थ कर दिखाया नाटक के जुनून के लिए लिए पिता से झगड़ा और परिवार को उसके हाल पर छोड़ने वाले और अब पंचायत के माधव से घर-घर पहचान बनाने वाले बुल्लू कुमार ने।

बुल्लू बचपन में ही आर्ट और मंच से दिल लगा बैठे। थिएटर और एक्टिंग को लेकर ऐसा पागलपन कि कभी रोजी-रोटी की फ्रिक ही नहीं सताई। इसका नतीजा खुद भी भुगता और घरवालों ने भी सहा।

आस-पास के लोगों का मानना था कि साधारण नाम और साधारण शक्ल-सूरत लेकर कोई एक्टर नहीं बनता है, लेकिन आज बुल्लू कुमार ने अपनी अदाकारी से उन तमाम बातों को गलत साबित कर दिया है।

आज की सक्सेस स्टोरी में बुल्लू कुमार की कहानी…

पांचवीं क्लास में मैंने अपना नाम ही बदल दिया

मैं बिहार के नवादा जिले के एक बहुत ही खूबसूरत गांव गोंदर बीघा से आता हूं। पिताजी खेती-किसानी करते थे। उन्होंने हम दोनों भाइयों का नाम भगत और चंद्रशेखर रखा था। मेरा असली नाम चंद्रशेखर कुमार था। पांचवीं तक लोग मुझे इसी नाम से जानते थे। गांव-घर में पुकार का नाम बुल्लू था।

पांचवीं में ही था, जब मुझे नाम को लेकर एक उलझन महसूस हुई। तो हुआ कुछ यूं कि बाहर से जब भी चिट्ठी आती तो लोगों का असली नाम उस पर लिखा होता था। एक बार मेरे घर में किसी के लिए चिट्ठी आई। उस पर शैलेंद्र लिखा था।

मुझे उसे देखकर लगा कि इस नाम का तो घर में कोई है ही नहीं। बाद में पता चला कि हम लोग जिसे शालो दादा कहते थे, उनका असली नाम शैलेंद्र है। तभी मैंने तय किया अब से मेरा पुकार और बाहर दोनों जगह एक ही नाम बुल्लू कुमार होगा।

नाम में क्या रखा है। अगर अच्छा काम करूंगा तो मेरे नाम का अच्छा मतलब निकलेगा। अगर गलत किया तो कोई भी नाम हो, मतलब गलत ही निकलेगा। क्या पता मैंने कुछ अच्छा किया तो फ्यूचर में कोई अपने बच्चे का नाम बुल्लू कुमार ही रख दे। यह सोचकर मैंने हाईस्कूल में खुद से ही अपना नाम बुल्लू कुमार करवा दिया।

पापा की ख्वाहिश थी कि सरकारी नौकरी ले लूं

मेरा गांव नदी किनारे बसा हुआ है। मैं अपने गांव की खूबसूरती क्या ही बताऊं। नदी किनारे 50-60 घर थे। नदी की पांच सौ मीटर की दूरी पर खेत, फिर पक्की सड़क और उसके पार पहाड़। इतना खूबसूरत गांव है कि उसे छोड़कर बाहर जाने का मन ही नहीं होता था। हाईस्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गया चला गया।

घर से निकलते वक्त अक्सर रोना आ जाता था। गांव में बचपन प्रकृति के बीच बीता है। कभी नदी से मछली पकड़ रहे हैं तो कभी खेत-खलिहान में चक्कर लगा रहे हैं। ज्यादा जोश आया तो पहाड़ चढ़ जाता था। फिर वहां बैठकर पूरे गांव को निहारता था।

बुल्लू कुमार के माता-पिता के छह महीने के अंतराल पर निधन हो गया था।

बुल्लू कुमार के माता-पिता के छह महीने के अंतराल पर निधन हो गया था।

मेरे पिताजी भले ही किसान थे, लेकिन हम दोनों भाइयों को खूब पढ़ाना चाहते थे। वो चाहते थे कि अंग्रेजी आनी चाहिए। पिताजी कहते थे कि सरकारी नौकरी ले लो। चाहे चपरासी की ही नौकरी करो, लेकिन सरकारी होनी चाहिए। मैं घर में अकेले पढ़ने वाला था इसलिए लोगों को मुझसे थोड़ी उम्मीद थी।

हाईस्कूल जाने के लिए गाना गाना शुरू किया

पांचवीं क्लास में था, जब एक टीचर ने कहा कि जब तक गाना नहीं गाओगे, हाई स्कूल नहीं जा पाओगे। मेरे मन में भी लालच था। यहां बोरा बिछाकर बैठना होता था। हाईस्कूल में बैठने के लिए बेंच मिलती। मैं हर रोज मंदिर में एक भजन सुनता था, उस भजन को मैंने उस दिन सुना दिया। इस तरह आर्ट की तरफ मेरा पहला कदम बढ़ा।

हाईस्कूल गया तो वहां मेरे संस्कृत टीचर बहुत अच्छे थे। वो मुझे बहुत प्यार भी करते थे। कविता-कहानी का बीज उनकी वजह से ही मेरे अंदर आया। मुझे हिंदी कहानी, चुटकुले पढ़ने का बड़ा शौक था। मुझे रद्दी में अगर कुछ दिख जाता था, तो मैं उसे पढ़ने लगता था।

एक दिन मुझे एक मगही कविता की किताब मिली। मैंने वो कविता क्लास में सुनाई। सबको बहुत पसंद आई और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या ये कविता तुम्हारी है। मुझे लगा कि मेरी तारीफ हो रही है तो मैं असली नाम क्यों बताऊं। इस वजह से मैं चुप रह गया।

बाद में मुझे बहुत बुरा लगा कि मैंने किसी और की कविता को अपना बता दिया। उसी वक्त मैंने तय कि अब मैं खुद लिखूंगा। उसके बाद हर दो-तीन दिन में मैं एक कविता लिखने लगा। फिर मैं क्लास में पैरोडी सुनाने लगा।

गांव के मंच पर मुझ पर बैन लग गया

मैंने जब से होश संभाला था, तबसे नाटक देखने लगा था। मुझे नाटक देखकर बहुत मजा आता था। मेरे एक क्लास टीचर ने मुझसे कहा कि तुम्हारे गांव में नाटक होता है। तुम स्कूल में इतना अच्छा कर रहे हो, गांव के नाटक में भी हिस्सा लो। मेरा गांव का जो नाटक मंच था, वो बहुत ज्यादा अनुशासित था।

बहुत पैरवी करने के बाद एक दिन मुझे रात में मौका मिला। मेरा काम मंच पर जाकर एक चुटकुला और गाना सुनने का था। मैं एक गाना और चुटकुला रटकर गया, लेकिन जब मैंने मंच से लोगों को देखा तो मैं सब भूल गया। ना मैं वहां चुटकुला बोल पाया और ना गाना गा पाया।

उस घटना के बाद मैं बहुत गिल्ट में चला गया। गांव के लोगों ने मुझे कहा कि तुम बेकार हो। तुमने मंच की बेइज्जती कर दी। फिर मुझे गांव के मंच से बैन कर दिया गया। मैं काफी दिनों तक इस बात से दुखी रहा, लेकिन मैं कोशिश करके एक बार फिर उस मंच तक पहुंचा और खुद को साबित किया। उसके बाद तो ऐसा हो गया कि मैं उस मंच का सबसे फेवरेट आर्टिस्ट रहा।

गांव के मंच पर बुल्लू कुमार

गांव के मंच पर बुल्लू कुमार

नौकरी की तैयारी के साथ ड्रामा में डिप्लोमा किया

गया में ग्रेजुएशन करने के दौरान मैं पटना दूरदर्शन देखता था। तब मन में आता था कि एक दिन इस पर आना है। जब मेरे बड़े भाई का देहांत हुआ, फिर मैं पटना नौकरी की तैयारी के लिए आ गया। भाई अकेले घर में कमाने वाले थे। उनके जाने के बाद वो प्रेशर मुझ पर आ गया कि नौकरी नहीं मिली तो परिवार बिखर जाएगा।

पटना में आने के पांच महीने बाद अचानक एक दिन मुझे कालिदास रंगालय के बाहर नाटक का पोस्टर दिखा। उसके पहले तक मुझे यही लगता था कि नाटक सिर्फ गांव-घर में होता है। मैं कालिदास रंगालय में अंदर गया और एक घंटे का नाटक देखा।

नाटक खत्म होने के बाद मुझे लगा कि ये चीज शहर में भी हो रही है यानी इसकी कोई वैल्यू है। मुझे भी ये करना चाहिए। मैंने पढ़ाई के साथ कालिदास रंगालय से ड्रामा में दो साल का डिप्लोमा किया। कोर्स करने के बाद दो साल तक उधेड़बुन में रहा कि नौकरी करूं या एक्टिंग। फाइनली मैंने एक्टिंग को चुना। मैंने पटना में लगभग दस साल तक थिएटर किया।

थिएटर को लेकर पिताजी से हर दिन लड़ाई होती थी

पटना में दस साल तक थिएटर करने के दौरान मैंने अपना सर्वाइवल तो जैसे-तैसे कर लिया था, लेकिन परिवार के लिए कुछ नहीं कर पा रहा था। थिएटर मेरे लिए जुनून बन गया था। उस दौरान मेरी जब भी पिताजी से बात होती तो सिर्फ लड़ाई होती।

ऐसा नहीं था कि उन्हें थिएटर नहीं पता था, लेकिन वो चाहते थे कि मैं पहले घर को थोड़ा संभालूं, फिर जो करना है करूं। पिताजी की वो बात मुझे तब समझ नहीं आती। आज जब मैं बाप बना हूं तो उनकी बातें समझ आती हैं। मेरे पिताजी अक्सर कहते थे कि नाटक-नौटंकी करता है।

मैंने साल 2008 में शादी कर ली थी। दोस्त भी कहने लगे थे कि तुम्हारा परिवार और बाल-बच्चा है। कोई और काम क्यों नहीं करते हो। पहले तो सबसे लड़ाई हो जाती थी। मैं बहुत ज्यादा रिएक्ट करने लगा था, लेकिन फिर धीरे-धीरे खुद को शांत करने लगा।

मुंबई आने के लिए पिताजी ने अपनी जमापूंजी दी

मैं साल 2011 में मुंबई आया था। मैंने महुआ चैनल के लिए ‘हंसी का तड़का’ नाम का एक शो किया था। वो शो काफी पॉपुलर हुआ। शो जीतने के बाद लगा कि अब तो मेरी दुनिया ही बदलने वाली है। मुंबई आने के लिए पिताजी ने 25 हजार रुपए दिए थे। वो उनकी जमापूंजी थी।

मैं अपने दो दोस्तों के साथ मुंबई रहने आ गया। मैं जिस दिन मुंबई पहुंचा, उसी दिन शूट के लिए गया था। ‘हंसी का तड़का’ शो के डायरेक्टर अमिताभ वर्मा का एक और शो आ रहा था। मैं उस शो में भी था। ऐसे में मुंबई में मेरा पहला और आगे के कुछ दिन तो अच्छे रहे।

फिर धीरे-धीरे मेरे पैसे खत्म हो गए और काम भी कुछ खास नहीं था। ऐसे में घर के साथ मुंबई भी छोड़ना पड़ा। मैं वापस पटना चला गया और थिएटर करने लगा। फिर दोबारा मैंने 2013 में मुंबई का रुख किया। मुझे ‘गुटरगूं’ नाम की फिल्म ऑफर हुई थी।

मेन लीड बना तो लोगों ने काम देना बंद किया

छठ का समय था और मैं अपने गांव में नाटक के लिए गया था। उसी वक्त मुझे पटना से थिएटर के सीनियर का कॉल आया। उन्होंने मुझे बताया कि कुछ लोग ऑडिशन के लिए आए हैं। दरोगा का रोल है तो मुझे लगता है कि तुम इसके लिए परफेक्ट हो। मैं अपना नाटक खत्म करके पटना गया और ऑडिशन दिया।

शाम को मुझे प्रतीक शर्मा और अस्मिता जी ने घर बुलाया और बताया कि मेन लीड आप कर रहे हैं। फिल्म में मैं मेन लीड हूं, ये सुनकर मेरे मुंह से निकला कि फिर फिल्म कौन देखेगा?

मेरे मन में था कि इतने साधारण चेहरे वाले को मेन लीड में कौन देखना चाहेगा। इस फिल्म से मेरी आस जगी और मैं दोबारा मुंबई आया। मुझे लगा कि अब खूब काम मिलेगा, लेकिन मेरे साथ उल्टा हुआ। मुझे काम मिलना बंद हो गया। मैं तो किसी भी तरह का रोल करना चाहता था, लेकिन बहुत सारे फिल्ममेकर को लगा कि मैं तो सिर्फ लीड रोल ही करूंगा।

मैंने एक डायरेक्टर को काम के लिए फोन किया तो उन्होंने मुझसे कहा कि बुल्लू जी आप तो आजकल लीड रोल कर रहे हैं। फिर मुझे एहसास हुआ कि लोगों के दिमाग में ये बात बैठ गई है कि मैं लीड के अलावा कुछ नहीं करूंगा। इस चक्कर में मेरा तीन-चार साल बर्बाद हो गया।

एक समय बच्चों की स्कूल फीस देने के पैसे नहीं थे

लॉकडाउन के दौरान मेरे पास काम नहीं था तो मैं अपने गांव लौट गया था। वहां जाकर मैं खेती करने लगा। लॉकडाउन से पहले मेरी आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि मेरे बच्चों को स्कूल से निकाल दिया गया। मैं उनकी फीस नहीं दे पाया। मुझे लगता था कि अभी नहीं है, थोड़े दिन बाद दे दूंगा, लेकिन स्कूल वाले नहीं माने। उन्होंने बच्चों का नाम काट दिया। मेरी लड़ाई भी हो गई थी।

सच बताऊं तो उस बात की तकलीफ बहुत ज्यादा थी। फिर लॉकडाउन में मुझ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। पहले मेरी मां गुजरीं, फिर 6 महीने के अंदर पिताजी का भी देहांत हो गया। मैं अपने बीवी-बच्चों को उनके पास ही छोड़कर मुंबई में स्ट्रगल करता था। उन दोनों के जाने से मैं हिम्मत हार गया। मैं गांव में अपना जीवन जी रहा था। उसी दौरान मुझे इंडस्ट्री के सबसे बड़े कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा का कॉल आया।

हॉटस्टार के लिए ‘ग्रहण’ नाम से एक सीरीज बन रही थी। पहली बार मुझे मेनस्ट्रीम का काम मिला था। ये हॉटस्टार का पहला हिट शो था। ‘ग्रहण’ करने के बाद मेरी बीवी को लगा कि मैं कुछ और अच्छा कर सकता हूं। उसने मुझसे कहा कि आप जाइए मुंबई, यहां हम सब संभाल लेंगे।

‘पंचायत’ के लिए पूरा वर्सोवा ऑडिशन दे चुका था

मैं मुंबई फिर से आया और बांगुर नगर में एक दोस्त के पास रहने लगा। बांगुर नगर में रहने के दौरान एक दिन मैं आरामनगर का चक्कर लगा रहा था। उसी दौरान मुझे मेरा एक जूनियर मिला। उसने मुझे बताया कि उसका एक जानने वाला लड़का है, जो पंचायत की कास्टिंग कर रहा है। उसने मुझे कहा कि आप अपनी प्रोफाइल भेजिए। मैंने भी तुरंत नंबर लेकर अपनी प्रोफाइल भेज दी और उधर से ऑडिशन मिल गया।

मेरे पास थिएटर का अनुभव था, सिनेमा का कुछ पता नहीं था। ऐसे में, मैं जिस दोस्त के पास रुका था, उसने मेरा एक अच्छा ऑडिशन बनवाया। उसे टीवी का एक्सपीरियंस था। मैंने ऑडिशन भेजा और सिलेक्ट हो गया। इस तरह मैं पंचायत का माधव बन गया, लेकिन इस बीच में मैंने ‘खाकी’, ‘रनवे लुगाई’, ‘महारानी‘, ‘द रेलवेमैन‘ जैसी सीरीज में भी काम किया।

‘पंचायत’ सीरीज मेरे लिए वरदान साबित हुई

‘पंचायत’ के पहले मुझे और मेरे काम को कोई नहीं जानता था। इस सीरीज ने मुझे वो पहचान दी, जिसके लिए मैं 2011 से संघर्ष कर रहा था। इस सीरीज ने मेरे जीवन में एक और परिवर्तन किया कि अब मुझे ऑडिशन नहीं देने होते हैं। अभी ‘पंचायत’ का पांचवां सीजन आ रहा है। इसके अलावा अमित राय की एक फिल्म भी कर रहा हूं। इसके अलावा मेरे पास काम आ रहा है। बतौर एक्टर इतनी ही ख्वाहिश है कि काम मिलता रहे। माधव ही नहीं और भी अलग-अलग किरदार से मेरी पहचान बने।

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